Beti Bachao Beti Padhao Poems | बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! पर कविताएँ

Top 10+ Beti Bachao Beti Padhao Poems | बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! पर कविताएँ

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” अभियान पर आधारित कविताओं का यह विशेष संग्रह “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! पर कविताएँ” (Beti Bachao Beti Padhao Poems) आपके लिए प्रस्तुत है। इस संकलन में इस महत्वपूर्ण विषय पर 20 से अधिक प्रेरणादायक और जागरूकता फैलाने वाली कविताएँ शामिल हैं। ये कविताएँ बालिका शिक्षा के महत्व, लैंगिक समानता और समाज में बेटियों के योगदान को रेखांकित करती हैं। इन कविताओं की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो हर पाठक के दिल को छू लेती है। यदि आप समाज और परिवार से जुड़ी अन्य कविताएँ पढ़ना चाहते हैं, तो आप माँ पर कविताएँ हिंदी में या पिता पर कविताएँ हिंदी में भी देख सकते हैं। इसके अलावा, प्रेरणादायक कविताएँ हिंदी में भी आपको पसंद आ सकती हैं। आइए, इन कविताओं के माध्यम से बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के संदेश को और अधिक मजबूती से फैलाएँ।

Beti Bachao Beti Padhao Poems in Hindi

  1. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! | निशान्त जैन
  2. बेटी की बिदा | माखनलाल चतुर्वेदी
  3. मेरी बेटी, मेरी जान! | दयानन्द पाण्डेय
  4. बेटी | दुर्गादान सिंह गौड़
  5. बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की | उमेश चौहान
  6. बाबुल भी रोए बेटी भी रोए | आनंद बख़्शी
  7. बेटी के घर से लौटना | चन्द्रकान्त देवताले
  8. बेटी के लिए | अंजू शर्मा
  9. उठ मेरी बेटी सुबह हो गई | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
  10. बेटी बचाओं,बेटी पढ़ाओ

1.बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! | निशान्त जैन

बेटी से रोशन ये आँगन
बेटी से ही अपनी पहचान,
हर लम्हे में खुशी घोलती
बेटी से ही अपनी शान।
 
शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार
विज्ञान हो या संचार,
तेरी काबिलियत के आगे
नतमस्तक सारा संसार।
 
गाँव-शहर-कस्बों में
बेटी पढ़ती-बढ़ती जाए,
नई चेतना से आओ अब
अपना देश जगाएँ।
 
धूमधाम से जन्में बेटियाँ
पढ़कर ऊँचा कर दें नाम,
आओ बेटियों के सपनों में
भर दें मिलकर नई उड़ान।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! Poem| निशान्त जैन

2.बेटी की बिदा | माखनलाल चतुर्वेदी

आज बेटी जा रही है,
मिलन और वियोग की दुनिया नवीन बसा रही है।

मिलन यह जीवन प्रकाश
वियोग यह युग का अँधेरा,
उभय दिशि कादम्बिनी, अपना अमृत बरसा रही है।

यह क्या, कि उस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैंजन,
यह क्या, कि इस आँगन सुने थे, वे सजीले मृदुल रुनझुन,
यह क्या, कि इस वीथी तुम्हारे तोतले से बोल फूटे,
यह क्या, कि इस वैभव बने थे, चित्र हँसते और रूठे,

आज यादों का खजाना, याद भर रह जायगा क्या?
यह मधुर प्रत्यक्ष, सपनों के बहाने जायगा क्या?

गोदी के बरसों को धीरे-धीरे भूल चली हो रानी,
बचपन की मधुरीली कूकों के प्रतिकूल चली हो रानी,
छोड़ जाह्नवी कूल, नेहधारा के कूल चली चली हो रानी,
मैंने झूला बाँधा है, अपने घर झूल चली हो रानी,

मेरा गर्व, समय के चरणों पर कितना बेबस लोटा है,
मेरा वैभव, प्रभु की आज्ञा पर कितना, कितना छोटा है?
आज उसाँस मधुर लगती है, और साँस कटु है, भारी है,
तेरे बिदा दिवस पर, हिम्मत ने कैसी हिम्मत हारी है।

कैसा पागलपन है, मैं बेटी को भी कहता हूँ बेटा,
कड़ुवे-मीठे स्वाद विश्व के स्वागत कर, सहता हूँ बेटा,
तुझे बिदाकर एकाकी अपमानित-सा रहता हूँ बेटा,
दो आँसू आ गये, समझता हूँ उनमें बहता हूँ बेटा,

बेटा आज बिदा है तेरी, बेटी आत्मसमर्पण है यह,
जो बेबस है, जो ताड़ित है, उस मानव ही का प्रण है यह।
सावन आवेगा, क्या बोलूँगा हरियाली से कल्याणी?
भाई-बहिन मचल जायेंगे, ला दो घर की, जीजी रानी,
मेंहदी और महावर मानो सिसक सिसक मनुहार करेंगी,
बूढ़ी सिसक रही सपनों में, यादें किसको प्यार करेंगी?

दीवाली आवेगी, होली आवेगी, आवेंगे उत्सव,
’जीजी रानी साथ रहेंगी’ बच्चों के? यह कैसे सम्भव?

भाई के जी में उट्ठेगी कसक, सखी सिसकार उठेगी,
माँ के जी में ज्वार उठेगी, बहिन कहीं पुकार उठेगी!

तब क्या होगा झूमझूम जब बादल बरस उठेंगे रानी?
कौन कहेगा उठो अरुण तुम सुनो, और मैं कहूँ कहानी,

कैसे चाचाजी बहलावें, चाची कैसे बाट निहारें?
कैसे अंडे मिलें लौटकर, चिडियाँ कैसे पंख पसारे?

आज वासन्ती दृगों बरसात जैसे छा रही है।
मिलन और वियोग की दुनियाँ नवीन बसा रही है।
आज बेटी जा रही है।

3.मेरी बेटी, मेरी जान! | दयानन्द पाण्डेय

तुम सर्दी में इतनी सुंदर क्यों हो जाती हो मेरी बेटी
गोल-मटोल स्कार्फ बांध कर
नन्हीलाल चुन्नी जैसी नटखट क्यों बन जाती हो मेरी बेटी

मेरी बेटी, मेरी जान, मेरी भगवान,
मेरी परी, मेरी आन, मेरा मान
मेरी ज़िंदगी का मेरा सब से बड़ा अरमान
लगता है जैसे मैं तुम्हें खुश रखने
और देखने के लिए ही पैदा हुआ हूं
तुम से पहले

काश कि मैं तुम्हारी मां भी होता
तो और कितना खुश होता
यह दोहरी ख़ुशी मैं कैसे समेट पाता
मेरी परी, मेरी जान, मेरी बेटी

मन करता है कि तुम्हें कंधे पर बिठाऊं
गांव ले जाऊं और गांव के पास लगने वाला मेला
तुम्हें घूम-घूम कर घुमाऊं
खिलौने दिलाऊं और तुम्हारे साथ खुद खेलूं
कभी हाथी बन जाऊं, कभी घोड़ा, कभी ऊंट
तुम्हें अपनी पीठ पर बिठा कर
दुनिया जहान दिखाऊं
तुम्हें गुदगुदाऊं, तुम खिलखिलाओ
और मैं खेत में खड़ी किसी फसल सा जी भर मुस्कराऊं

खेत-खेत तुम्हें घुमाऊं
उन खेतों में जहां ओस में भींगा
चने का साग
अभी तुम्हारी ही तरह
कोमल और मुलायम है, मासूम है
दुनिया की ठोकरों से महरुम है

गेहूं का पौधा अभी तुम्हारी तरह ही बचपन देख रहा है
विभोर है अपने बचपन पर
बथुआ उस का साथी
अपने पत्ते छितरा कर खिलखिला रहा है

मन करता है
तुम्हारे बचपन के बहाने
अपने बचपन में लौट जाऊं
जैसे गेहूं और बथुआ आपस में खेल रहे हैं
मैं भी तुम्हारे साथ खेलूं

तुम्हें किस्से सुनाऊं
हाथी, जंगल और शेर के
राजा, रानी, राजकुमार और परी के
तुम को घेर-घेर के
उन सुनहरे किस्सों में लौट जाऊं
जिन में चांद पर एक बुढ़िया रहती थी

आओ न मेरी बेटी, मेरी जान
मेरा सब से बड़ा अरमान
तुम्हारी चोटी कर दूं
तुम्हारी आंख में ज़रा काजल लगा दूं
दुनिया के सारे दुख और झंझट से दूर
तुम्हें अपनी गोद के पालने में झूला झुला दूं
दुनिया के सारे खिलौने, सारे सुख
तुम्हें दे कर ख़ुद सुख से भर जाऊं

इस दुनिया से लड़ने के लिए
इस दुनिया में जीने के लिए
तुम्हारे हाथ में एक कॉपी, एक कलम, एक किताब
एक लैपटाप, एक इंटरनेट थमा दूं
मेरी बेटी तुम्हारे हाथ में तुम्हारी दुनिया थमा दूं
तुम्हारा मस्तकबिल थमा दूं
ताकि तुम्हारी ही नहीं, हमारी दुनिया भी सुंदर हो जाए
मेरी बेटी, मेरी जान
मेरी ज़िंदगी का मेरा सब से बड़ा अरमान

4.बेटी | दुर्गादान सिंह गौड़

जद माँडी तहरीर ब्याव की, मँडग्या थारा कुल अर खाँप,
भाई मँड्यो दलाल्याँ ऊपर अर कूँळे मँडग्या माँ – बाप,
थोड़ा लेख लिख्या विधना ने, थोड़ मँडग्या आपूँ आप,
थँई बूँतबा लेखे कोयल! बणग्या नाळा नाळा नाप,
जाए सासरे जा बेटी, लूण -तेल ने गा बेटी/
सबने रखजे ताती रोटी अर तू गाळ्याँ खा बेटी——-

वे कह्वे छै-तू बोले छै, छानी न्हँ रह जाणै कै,
क्यूँ धधके छै कझली कझली, बानी न्हँ हो जाणै के,
मत उफणे तेजाब सरीखी, पॉणी न्हँ हो जाणै के,
क्यूँ बागे मोडी- मारकणी, स्याणी न्हँ हो जाणै के,
उल्टी आज हवा बेटी/ छाती बाँध तवा बेटी/
सबने रखजे—————————–

घणीं हरख सूँ थारो सगपॅण ठाम-ठिकाणे जोड़ दियो,
पॅण दहेज का लोभ्याँ ने पल भर में सगपॅण तोड़ दियो,
कुण सूँ बुझूँ कोई न्हॅ बोले, सबने कोहरो ओढ़ लियो,
ईं दन लेखे म्हँने म्हारो, सारो खून निखेड़ दियो,
वे सब सदा सवा बेटी/ थारा च्यार कवा बेटी/
सबने रखजे —————————–

काँच, कटोरा और नैणजल, मोती छै अर मन बेटी,
दोय कुलाँ को भार उठायाँ शेषनाग को फण बेटी,
तुलसी, डाब, दिया अर सात्यो, पूजा अर हवन बेटी
कतनो भी खरचूँ तो भी म्हँ, थँ सूँ न्हॅ होऊँ उरण बेटी,
रोज आग में न्हा बेटी/ रखजे राम गवा बेटी/
सबने रखजे —————————–

यूँ मत बैठे, थोड़ी पग ले, झुकी झुकी गरदन ई ताण,
ज्यां में मिनखपॅणों ई को न्हॅ, वॉ को क्यूँ ’र कश्यो सम्मान,
आज आदमी छोटो पड़ग्यो, पीड़ा होगी माथे स्वॉण,
बेट्याँ को कतनो भख लेगो, यो सतियाँ को हिन्दुस्तान,
जे दे थॅने दुआ बेटी/ वाँ ने शीश नवा बेटी/
सबने रखजेताती रोटी, अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

5.बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की | उमेश चौहान

बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया में
कैसे-कैसे मानसिक झंझावातों से
गुजरती है लड़की।

अपनों से एकाएक कटकर अलग होती,
कटने की उस तीखी पीड़ा को
दाम्पत्य-बंधन के अनुष्ठानों में संलग्न हो
शिव के गरल-पान से भी ज्यादा सहजता से
आत्मसात करने का प्रयत्न करती,
लड़की वैसे ही विदा होती है
मां-बाप की ड्योढ़ी से
जैसे आकाश का कोई उन्मुक्त पंछी
उड़कर समाने जा रहा हो किसी अपरिचित पिंजड़े में
अपने नवेले जीवन-साथी के पंख से पंख मिलाता
किसी नूतन स्वप्नालोक की तलाश में।

अपने बचपन की समस्त स्वाभाविकता
अपने किशोरपन की सारी चंचलता
अपने परिवेश में संचित समूची भावुकता
सबको एकाएक भुलाकर
अपने नए परिवार में एकाकार होती लड़की
हर दम बाहर से हंसती और अंदर से रोती है।

लड़की का पहनावा, बोल-चाल, हाव-भाव,
सब कुछ नित्य नए परिजनों के स्कैनर पर होता है
मां-बाप के घर से मिले संस्कार, कुसंस्कार,
कपड़े-लत्ते, गहने, सामान,
सब पर उनका अपना-अपना दृष्टिकोण होता है,
जिनका लड़की के कानों तक पहुंचाया जाना
अनिवार्यता होती है, और
उन पार्श्व-वक्तव्यों की अन्तर्ध्वनि तक को
पचा जाना लड़की का कर्तव्य।

अपने नए परिवार की परंपराओं के साथ ताल-मेल बिठाती,
अपने नए जीवन-सहचर के साथ
दाम्पत्य की अभिनव यात्रा पर निकल पड़ी लड़की
हमेशा सशंकित रहती है,
चिन्तित होती है,
फिर भी वह निरन्तर आशावान बनी रहती है
अपने भविष्य के प्रति।
बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की
अपने प्रियतम की आँखों में आँखें डालकर
परिवर्तन के अथाह सागर को पार कर जाती है,
किन्तु कभी-कभी दुर्भाग्यशाली भी होती है
ऐसी ही एक बेटी
जिसे उन आँखों में नहीं मिल पाती
अपने भविष्य के उजाले की कोई भी किरण।

6.बाबुल भी रोए बेटी भी रोए | आनंद बख़्शी

बाबुल भी रोए बेटी भी रोए माँ के कलेजे के टुकड़े होंए
कैसी अनहोनी वो रीत निभाई कोई जन्म दे कोई ले जाए
बाबुल भी रोए …

हमने लाड़ों से जिसको पाला आज उसी को घर से निकाला
हम क्या चीज़ हैं राजे महाराजे बेटी को घर में रख ना पाए
बाबुल भी रोए …

पीछे रह गया प्यार पुराना आगे जीवन पथ अन्जाना
साथ दुआएं ले जा सबकी और तो कोई साथ न आए
बाबुल भी रोए …

भाई बहन की बिछड़ी जोड़ी रह गईं दिल में यादें थोड़ी
जाने ये तक़दीर निगोड़ी फिर कब बिछुड़ी प्रीत मिलाए
बाबुल भी रोए …

ये हाथों की चन्द लकीरें इनमें लिखीं सबकी तक़दीरें
कागज़ हो तो फाड़ के फेंकूं उस का लिखा कौन मिटाए
बाबुल भी रोए …

बाबुल भी रोए बेटी भी रोए Poem| आनंद बख़्शी

7.बेटी के घर से लौटना | चन्द्रकान्त देवताले

बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन

पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे के घुमड़ते
होती बारीश आँखो से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना।

8.बेटी के लिए | अंजू शर्मा

दर्द के तपते माथे पर शीतल ठंडक सी
मेरी बेटी
मैं ओढा देना चाहती हूँ तुम्हे
अपने अनुभवों की चादर
माथे पर देते हुए एक स्नेहिल बोसा
मैं चुपके से थमा देती हूँ
तुम्हारे हाथ में
कुछ चेतावनियों भरी पर्चियां,
साथ ही कर देना चाहती हूँ
आगाह गिरगिटों की आहट से

तुम जानती हो मेरे सारे राज,
बक्से में छिपाए गहने,
चाय के डिब्बे में
रखे घर खर्च से बचाए चंद नोट,
अलमारी के अंदर के खाने में रखी
लाल कवर वाली डायरी,
और डोरमेट के नीचे दबाई गयी चाबियां
पर नहीं जानती हो कि सीने की गहराइयों में
तुम्हारे लिए अथाह प्यार के साथ साथ
पल रही हैं
कितनी ही चिंताएँ,

मैं सौंप देती हूँ तुम्हे पसंदीदा गहने कपडे,
भर देती हूँ संस्कारों से तुम्हारी झोली,
पर बचा लेती हूँ चुपके से सारे दुःख और संताप
तब मैं खुद बदल जाना चाहती हूँ एक चरखड़ी में
और अपने अनुभव के मांजे को तराशकर
उड़ा देना चाहती हूँ
तुम्हारे सभी दुखों को बनाकर पतंग
कि कट कर गिर जाएँ ये
काली पतंगे सुदूर किसी लोक में,

चुरा लेना चाहती हूँ
ख़ामोशी से सभी दु:स्वप्न
तुम्हारी सुकून भरी गाढ़ी नींद से
ताकि करा सकूँ उनका रिजर्वेशन
ब्रहमांड के अंतिम छोर का,
इस निश्चिंतता के साथ
कि वापसी की कोई टिकट न हो,

वर्तमान से भयाक्रांत मैं बचा लेना चाहती हूँ
तुम्हे भविष्य की परेशानियों से,
उलट पलट करते मन्नतों के सारे ताबीज़
मेरी चाहत हैं कि सभी परीकथाओं से विलुप्त हो जाएँ
डरावने राक्षस,
और भेजने की कामना है तुम्हारी सभी चिंताओं को,
बनाकर हरकारा, किसी ऐसे पते का
जो दुनिया में कहीं मौजूद ही नहीं है,

पल पल बढ़ती तुम्हारी लंबाई के
मेरे कंधों को छूने की इस बेला में,
आज बिना किसी हिचक कहना चाहती हूँ
संस्कार और रुढियों के छाते तले
जब भी घुटने लगे तुम्हारी सांस
मैं मुक्त कर दूंगी तुम्हे उन बेड़ियों से
फेंक देना उस छाते को जिसके नीचे
रह पाओगी सिर्फ तुम या तुम्हारा सुकून
मेरी बेटी ………..

9.उठ मेरी बेटी सुबह हो गई | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।

तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया

उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।

उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंडेर पर बैठा है,
धूप आ गई।

10.बेटी बचाओं,बेटी पढ़ाओ

मैं भी लेती श्वास हूँ
पत्थर नहीं इंसान हूँ

कोमल मन हैं मेरा
वही भोला सा हैं चेहरा

जज़बातों में जीती हूँ
बेटा नहीं, पर बेटी हूँ

कैसे दामन छुड़ा लिया
जीवन के पहले ही मिटा दिया

तुझ से ही बनी हूँ
बस प्यार की भूखी हूँ

जीवन पार लगा दूंगी
अपनालों, मैं बेटा भी बन जाऊँगी

दिया नहीं कोई मौका
बस पराया बनाकर सोचा

एक बार गले से लगा लो
फिर चाहे हर कदम आज़मालो

हर लड़ाई जीत कर दिखाऊंगी
मैं अग्नि में जलकर भी जी जाऊँगी

चंद लोगो की सुन ली तुमने
मेरी पुकार ना सुनी

मैं बोझ नहीं, भविष्य हूँ
बेटा नहीं, पर बेटी हूँ

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ! पर कविताएँ” (Beti Bachao Beti Padhao Poems) का यह संग्रह हमें बालिका शिक्षा और लैंगिक समानता के महत्व को समझने में मदद करता है। ये कविताएँ न केवल जागरूकता फैलाती हैं, बल्कि समाज में बदलाव लाने की प्रेरणा भी देती हैं। इन कविताओं के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि बेटियाँ किसी भी तरह से बेटों से कम नहीं हैं और उन्हें भी समान अवसर मिलने चाहिए। यदि आप समाज और मानवीय मूल्यों पर और अधिक कविताएँ पढ़ना चाहते हैं, तो जीवन पर कविताएँ हिंदी में और देशभक्ति पर कविताएँ आपको पसंद आ सकती हैं। हम आपसे आग्रह करते हैं कि इस संदेश को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए इस संग्रह को अपने दोस्तों और परिवार के साथ सोशल मीडिया पर शेयर करें। अंत में, याद रखें कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ केवल एक नारा नहीं है, यह एक ऐसा आंदोलन है जो हमारे समाज को अधिक समतामूलक और प्रगतिशील बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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