15 Best Piyush Mishra Poems in Hindi | पीयूष मिश्रा की कविताए
साहित्य और संगीत के प्रेमियों, आज हम आपके लिए लेकर आए हैं “15 Best Piyush Mishra Poems in Hindi | पीयूष मिश्रा की कविताएँ” का एक अनूठा संग्रह। पीयूष मिश्रा, जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिंदी साहित्य और बॉलीवुड दोनों में अपना लोहा मनवाया है, उनकी ये कविताएँ समाज, प्रेम और जीवन के कटु यथार्थ को बेबाकी से प्रस्तुत करती हैं। इस संकलन में उनकी 15 सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ शामिल हैं, जो उनकी तीखी लेखनी और गहन विचारों को प्रदर्शित करती हैं। यदि आप समकालीन हिंदी कविता की और गहराई में जाना चाहते हैं, तो आप कुमार विश्वास की कविताएँ या राहत इंदौरी की शायरी भी पढ़ सकते हैं। आइए, पीयूष मिश्रा की इन विचारोत्तेजक और भावपूर्ण रचनाओं के साथ एक अलग ही काव्य यात्रा पर निकलें।
Best Piyush Mishra Poems | पीयूष मिश्रा की कविताए
- अरे, जाना कहां है
- थैंक यू साहब…
- कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
- One Night Stand | Piyush Mishra
- ओ रे बाबा हम चाँदी नहीं माँगते | पीयूष मिश्रा
- पगड़ी सँभाल जट्टा | पीयूष मिश्रा
- मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका | पीयूष मिश्रा
- सरफ़रोशी की तमन्ना | पीयूष मिश्रा
- मेरा रँग दे बसन्ती चोला | पीयूष मिश्रा
- चाँद गोरी के घर | पीयूष मिश्रा
- इक बगल में चाँद होगा | पीयूष मिश्रा
- जावेद का ख़त…लखनऊ से | पीयूष मिश्रा
- आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तको के झुण्ड | पीयूष मिश्रा
- उजला ही उजला | पीयूष मिश्रा
- रात के मुसाफिर | पीयूष मिश्रा
1.अरे, जाना कहां है
अरे, जाना कहां है…?
उस घर से हमको चिढ़ थी जिस घर
हरदम हमें आराम मिला…
उस राह से हमको घिन थी जिस पर
हरदम हमें सलाम मिला…उस भरे मदरसे से थक बैठे
हरदम जहां इनाम मिला…
उस दुकां पे जाना भूल गए
जिस पे सामां बिन दाम मिला…हम नहीं हाथ को मिला सके
जब मुस्काता शैतान मिला…
और खुलेआम यूं झूम उठे
जब पहला वो इन्सान मिला…फिर आज तलक ना समझ सके
कि क्योंकर आखिर उसी रोज़
वो शहर छोड़ के जाने का
हम को रूखा ऐलान मिला…
2.थैंक यू साहब…
मुंह से निकला वाह-वाह
वो शेर पढ़ा जो साहब ने
उस डेढ़ फीट की आंत में ले के
ज़हर जो मैंने लिक्खा था…वो दर्द में पटका परेशान सर
पटिया पे जो मारा था
वो भूख बिलखता किसी रात का
पहर जो मैंने लिक्खा था…वो अजमल था या वो कसाब
कितनी ही लाशें छोड़ गया
वो किस वहशी भगवान खुदा का
कहर जो मैंने लिक्खा था…शर्म करो और रहम करो
दिल्ली पेशावर बच्चों की
उन बिलख रही मांओं को रोक
ठहर जो मैंने लिक्खा था…मैं वाकिफ था इन गलियों से
इन मोड़ खड़े चौराहों से
फिर कैसा लगता अलग-थलग-सा
शहर जो मैंने लिक्खा था…मैं क्या शायर हूं शेर शाम को
मुरझा के दम तोड़ गया
जो खिला हुआ था ताज़ा दम
दोपहर जो मैंने लिक्खा था…
3.कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
वह लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
(फैज़ साहब)वो काम भला क्या काम हुआ
जिस काम का बोझा सर पे हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिस इश्क़ का चर्चा घर पे होवो काम भला क्या काम हुआ
जो मटर सरीखा हल्का हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमे न दूर तहलका होवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें न जान रगड़ती हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें न बात बिगड़ती होवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें साला दिल रो जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो आसानी से हो जाएवो काम भला क्या काम हुआ
जो मज़ा नहीं दे व्हिस्की का
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना मौक़ा सिसकी कावो काम भला क्या काम हुआ
जिसकी ना शक्ल ‘इबादत’ हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसकी दरकार ‘इजाज़त होवो काम भला क्या काम हुआ
जो कहे ‘घूम और ठग ले बे’
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो कहे ‘चूम और भग ले बे ‘वो काम भला क्या काम हुआ
कि मज़दूरी का धोखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ कि
जो मज़बूरी का मौक़ा होवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना ठसक सिकंदर की
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना ठरक हो अंदर कीवो काम भला क्या काम हुआ
जो कड़वी घूँट सरीखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें सब कुछ मीठा होवो काम भला क्या काम हुआ
जो लब की मुस्कान खोता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो सबकी सुन के होता होवो काम भला क्या काम हुआ
जो ‘वातानुकूलित’ हो बस
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ‘हांफ के कर दे चित’ बसवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना ढेर पसीना हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ना भीगा ना झीना होवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना लहू महकता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो इक चुम्बन में थकता होवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें अमरीका बाप बने
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो वियतनाम का शाप बनेवो काम भला क्या काम हुआ
जो बिन लादेन को भा जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो चबा ‘मुशर्रफ़’ खा जाएवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें संसद की रंगरलियाँ
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो रंग दे गोधरा की गलियाँवो काम भला क्या काम हुआ
जिसका सामां खुद ‘बुश’ हो ले
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो एटम-बम से खुश हो लेवो काम भला क्या काम हुआ
जो ‘दुबई फ़ोन पे’ हो जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो मुंबई आ के ‘खो’ जाएवो काम भला क्या काम हुआ
जो ‘जिम’ के बिना अधूरा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो हीरो बन के पूरा होवो काम भला क्या काम हुआ
की सुस्त जिंदगी हरी लगे
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
की ‘लेडी मैकबेथ’ परी लगेवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें चीखों की आशा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो मज़हब रंग और भाषा होवो काम भला क्या काम हुआ
जो ना अंदर की ख्वाहिश हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो पब्लिक की फ़रमाइश होवो काम भला क्या काम हुआ
जो कंप्यूटर पे खट-खट हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना चिठ्ठी ना ख़त होवो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें सरकार हज़ूरी हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ललकार ज़रूरी होवो काम भला क्या काम हुआ
जो नहीं अकेले दम पे हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ख़त्म एक चुम्बन पे होवो काम भला क्या काम हुआ
की ‘हाय जकड ली ऊँगली बस’
वो इश्क़ भला का इश्क़ हुआ
की ‘हाय पकड़ ली ऊँगली बस’वो काम भला क्या काम हुआ
की मनों उबासी मल दी हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें जल्दी ही जल्दी होवो काम भला क्या काम हुआ
जो ना साला आनंद से हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो नहीं विवेकानंद से होवो काम भला क्या काम हुआ
जो चन्द्रशेखर आज़ाद ना हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो भगत सिंह की याद ना होवो काम भला क्या काम हुआ
कि पाक़ जुबां फ़रमान ना हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो गांधी का अरमान ना होवो काम भला क्या काम हुआ
कि खाद में नफ़रत बो दूँ में
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि हसरत बोले रो दूँ मेंवो काम भला क्या काम हुआ
की की खट्ट तसल्ली हो जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि दी ना टल्ली हो जाएवो काम भला क्या काम हुआ
इंसान की नीयत ठंडी हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि जज़्बातों में मंदी होवो काम भला क्या काम हुआ
कि क़िस्मत यार पटक मारे
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि दिल मारे ना चटखारेवो काम भला क्या काम हुआ
कि कहीं कोई भी तरक नहीं
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि कड़ी खीर में फ़रक नहींवो काम भला क्या काम हुआ
चंगेज़ खान को छोड़ दे हम
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
इक और बाबरी तोड़ दे हमवो काम भला क्या काम हुआ
कि आदम बोले मैं ऊँचा
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि हव्वा के घर में सूखावो काम भला क्या काम हुआ
जो एक्टिंग थोड़ी झूल के हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो मारलॉन ब्रांडो भूल के होवो काम भला क्या काम हुआ
‘परफार्मेंस’ अपने बाप का घर
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि मॉडल बोले में ‘एक्टर’वो काम भला क्या काम हुआ
कि टट्टी में भी फैक्स मिले
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि भट्ठी में भी सेक्स मिलेवो काम भला क्या काम हुआ
हर एक ‘बॉब डी नीरो’ हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
कि निपट चू**या हीरो हो….
सनसनाहट की तनी हुई डोरियाँ
ख़ून की रफ़्तार में आँधियाँ
कानों में विद्युत की तड़क
वह शायद मेरा नाम पूछ रहा हैअड़तीस.. या चालीस
अब इस उमर में क्या कुँवारा होगा..?
शादीशुदा हो तो बेहतरपिकासो की पोती का कहना था कि
वे यौनता की गलियों में कलासंधान कर रहे थे
प्रेमिकाएँ और पत्नियाँ प्रेरणा थीं उनकी
जब कोई औरत मिले – मोहिनी परी/देवी
तो कला का चरखा चले
चरखा बंद होता आए
तो समझो डोरमैट हो गई है
उसके जाने का वक़्त है.
इसने दूसरी शैम्पेन बुलवाई है मेरे लिए
ये मुझे देवी समझता है आज?पूरे 300 दिन हुए हैं
कुछ हुए
हम लोग भाई बहन बन चुके हैं क्या?
80 प्रतिशत शादियाँ
एसेक्सुअल हो जाती हैं वैसे तो
किसका दोष, किसे पता
जोश? कहाँ उड़ाबाथरूम में पंद्रह मिनट से हूँ
पैर इतने नहीं काँपे कभी
कशमकश की आग में
इंसान झुलस जाए, यह इल्म नहीं था
हाँ या नहीं..
तीसरी बार ठण्डा पानी डाला है चेहरे पर
बातें तो बड़ी बड़ी करती हूँ
पुरुष के समान स्त्री के हक़ की
अप्राकृतिक नैतिकता की
‘प्रश्न चिन्हों की रानी’
अख़बारों ने मुझे घोषित किया है.
राम, कृष्ण, सीता, उर्मिला, पाण्डव
इस्लाम, ओल्ड टेस्टामेंट
भ्रूण हत्या, खाप, बोकोहरम
अमेरिका, बॉलीवुड
दहेज़, बाल मजदूर
घर से निकलने की, काम करने की, पति चुनने की स्वतंत्रता
औरतों की अन्याय सहने की आदत..
प्रश्न चिन्ह लगाना ही मेरा काम है.
कागज़ पर देखें तो आज़ादी मेरा नाम है.आश्वस्त, सुरक्षित अजनबी
खिलाड़ी है, उसका रोज़ का काम है.
कल सब अपने अपने देश लौट जाएँगे
मैंने ग़लत नाम बताया है
उसने भी झूठ ही कहा होगा
ज़्यादा सोचना बेवक़ूफ़ी है
अब जो होगा सो होगा
लानत ऐसे जीवन पर
जो कभी न फ़िसले
दृढ़ कदम बाहर निकले‘हाँ, मैं ले लूँगी शैम्पेन’
लेकिन ये तो स्नेह से देख रहा है मेरी तरफ़
थोड़ा सम्मान भी है आँखों में
इसे ऊपर जाने की कोई जल्दी नहीं है
कहता है मैं समझदार हूँ..सब कुछ गड़बड़ है
मैं अकेली ही वापस जाती हूँ,
अच्छा है –
ग्लानि भी नहीं होगी
5.ओ रे बाबा हम चाँदी नहीं माँगते | पीयूष मिश्रा
ओ रे बाबा हम चाँदी नहीं माँगते
ओ रे बाबा हम सोना नहीं माँगते
हम हीरे का खज़ाना नहीं माँगते
गर हम कुछ माँगते माँगते हैं तो अपना हक
माँगते माँगते माँगतेहम यूँ ही कट जाना नहीं माँगते
हम यूँ ही जल जाना नहीं माँगते
हम यूँ ही मर जाना नहीं माँगते
गर हम कुछ माँगते माँगते हैं तो अपना हक
माँगते माँगते माँगतेपोप सुन लो ज़रा, तुम भी ये दासताँ
हमने सीखी है ये, गैलिलियो की ज़ुबाँ
धर्म तुम्हारा था, हज़्ज़ारों साल से
आज हमारा है, ऐसा उसने कहा
हम स्वर्ग-नरक का फ़साना नहीं माँगते
उलझा हुआ ताना-बाना नहीं माँगते
गर हम कुछ माँगते माँगते हैं तो अपना हक
माँगते माँगते माँगतेहम जीने का बहाना नहीं माँगते
हम गुज़रा ज़माना नहीं माँगते
हम बासी ये तराना नहीं माँगते
गर हम कुछ…ओ ज़मींदार भई, तूने जो ज़ुल्म किए
इक-इक करके सभी हमने मालूम किए
झूठा लगान था, झूठा फ़रमान था
झूठी हर बात थी, झूठा हर दाम था
हम झूठा लगान चुकाना नहीं माँगते
खेतों में बारूद उगाना नहीं माँगते
गर हम कुछ माँगते माँगते हैं तो अपना हक
माँगते माँगते माँगतेभूखे बच्चों को रुलाना नहीं माँगते
हम फेंका हुआ खाना नहीं माँगते
अब हम थक जाना नहीं माँगते
गर हम कुछ…
6.पगड़ी सँभाल जट्टा | पीयूष मिश्रा
पगड़ी सँभाल जट्टा उड़ी चली जाए रे
पगड़ी की गाँठ पे कोई हाथ ना लगाए रेमोड़ दे हवा के रुख़ को जो वो आड़े आए रे
रोक दे उमड़ती रुत को आँख जो दिखाए रे
सरकटी उम्मीदों के पल याद में सजाए रे
ख़ून से सनी मिट्टी को भूल तो ना जाए रे
देख देती है वो क़समें अब मचा दे हाय रे
फिर भले ही सारी पगड़ी ख़ून में नहाए रे
पगड़ी सँभाल जट्टा…
7.मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका | पीयूष मिश्रा
मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका
ख़ूब जाना चाहता हूँ अमेरिका
पी जाना चाहता हूँ अमेरिका मैं
खा जाना चाहता हूँ अमेरिका
…क्या क्या क्या है अमेरिका रे बोलो
क्या क्या क्या है अमेरिका
बस ख़ामख़्वाह है अमेरिका रे बोलो
बस ख़ामख़्वाह है अमेरिका
…सोने की खान है अमेरिका
गोरी-गोरी रान है अमेरिका
मेरा अरमान है अमेरिका रे
हाय मेरी जान है अमेरिका
मैं जाना चाहता हूँ……अमरीका में ऐसे क्या-क्या हीरे-मोती जड़े हुए
देखो उसके फुटपाथों पर कितने भूखे पड़े हुए
जिधर उसे दिखती गुंजाइश वहीं-वहीं घुस जाता है
सबकी छाती पर मूँगों को दलना उसको आता हैअमरीका है क्या…कद्दू
अमरीका है क्या…बदबू
अमरीका है क्या …टिंडा
अमरीका है…मुछमुण्डा
अब भी सँभल जाइए हज़रत मान हमारी बात
कि घुसपैठी है अमेरिका
बन्द कैंची है अमेरिका
बाप को अपने ना छोड़े
ऐसा वहशी है अमेरिका
…मैं जाना चाहता हूँ अमेरिकाआपको क्या मालूम जगह है वो क्या मीठी-मीठी-सी
…नंगी पिण्डली देख के मन में जले है तेज़ अँगीठी-सी
बड़े-बड़े है फ्लाईओवर और बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें वहाँ
बड़े-बड़े हीरो-हिरोइन बड़े-बड़े एक्टिंगें वहाँ
जहाँ भी चाहो घूमो मस्ती में कोई ना रोके है
पड़े रहो तुम मौला बनकर कोई भी ना टोके है
इसीलिए चल पड़िए मेरे कहता हूँ मैं साथकि रॉल्सरॉइस है अमेरिका
मेरी ख़्वाहिश है अमरीका
फ़रमाइश है अमेरिका रे मेरी
गुंजाइश है अमेरिका
मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका…अमरीका की बात कही तो ख़ूब मटक गए वाह वाह वाह
ये भूले कि वहाँ गए तो ख़तम भटक गए वाह वाह वाह
क्या-क्या है उसके कूचे में जो है नहीं हमारे में
बात करे हमसे कुव्वत इतनी भी नहीं बेचारे में
हम बतलाएँगे उसको ज़िन्दादिल कैसे होते हैं
सबकी सोचें महक-महक कर वो दिल कैसे होते हैं
इक बन्दा है वहाँ पे जिसका नाम जॉर्ज बुश होता है
छोटे बच्चों पर जो फेंके बम तो वो ख़ुश होता है
ऐसे मुलुक में जा करके क्या-क्या कर पाएँगे जनाब
जहाँ पे चमड़ी के रंग से इंसाँ का होता है हिसाब
इसीलिए हम कहते हैं आली जनाब ये बातकि हिरोशिमा है अमेरिका
नागासाकी है अमेरिका
वियतनाम के कहर के बाद अब
क्या बाक़ी है अमेरिका
मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका…ये तो फरमा दिया आपने अमरीका क्या होता है
पर रहती हैं आप जहाँ पे वहाँ पे क्या-क्या होता है
इक रहता है बन्दा जिसकी ज़ात और कुछ होती है
क़ौम-परस्ती देख के उसकी तकलीफ़ें ख़ुश होती हैं
वो फिरता है यहाँ-वहाँ ये आस लिए कि पहचानो
मुझको भी इस वतन का हिस्सा वतन का टुकड़ा ही मानो
वरना देखो मेरे अन्दर भी इक जज़्बा उट्ठेगा
रक्खा है जो हाथ जेब में निकल के ऊपर उट्ठेगा
इसीलिए वो बन्दा कहता बार-बार यही बातकि मैं जाना चाहता हूँ कहीं और…?
…ना…
मैं रहना चाहता हूँ इसी ठौर…?
…ना…
मैं जानना चाहता हूँ वहाँ-वहाँ…?
…ना…
मैं रहना चाहता हूँ यहाँ-वहाँ…?
…ना…
वहाँ…?
…नहीं
तो वहाँ…?
…नहीं
तो वहाँ…?
…नहीं
तो कहाँ…?…जब कोई ठौर मेरा ना होने की होती है बात…
तो मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका
मैं खूब जाना चाहता हूँ अमेरिका
मैं पी जाना चाहता हूँ अमेरिका
मैं खा जाना चाहता हूँ अमेरिका
मैं जाना चाहता हूँ अमेरिका
8.सरफ़रोशी की तमन्ना | पीयूष मिश्रा
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए-क़ातिल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
सरफ़रोशी की…देख फाँसी का ये फंदा ख़ौफ़ से है काँपता
उफ़्फ़ कि जल्लादों की हालत भी बड़ी मुश्किल में है
नर्म स्याही से लिखे शेरों की बातें चुक गईं
इक नई बारूद से लिक्खी ग़ज़ल महफ़िल में है
देखना है ज़ोर कितना…आँख से टपकी लहू की बूँद को ले हाथ में
सर कटा दें ऐ वतन बस ये ही हसरत दिल में है
ज़िन्दगी के रास्तों पे ख़ूब यारो चल लिए
अब ज़रा देखें छुपा क्या मौत की मंज़िल में है
देखना है ज़ोर कितना…
- Hindi Poems on Nature | प्रकृति पर कविताएँ| प्रकृति पर हिंदी बाल कविताएँ
- सुभद्राकुमारी चौहान कविताएं | Subhadra Kumari Chauhan Poems in Hindi
9.मेरा रँग दे बसन्ती चोला | पीयूष मिश्रा
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, माई…
मेरे चोले में तेरे माथे का पसीना है
और थोड़ी सी तेरे आँचल की बूँदें हैं
और थोड़ी सी है तेरे काँपते बूढ़े हाथों की गर्मी
और थोड़ा सा है तेरी आँखों की सुर्खी का शोलाइस शोले को जो देखा तो आज ये
लाल तेरा बोला अरे बोला —मेरा रँग दे बसंती चोला, माई…
10.चाँद गोरी के घर | पीयूष मिश्रा
चाँद गोरी के घर बारात ले के आ
गोरी ओट में खड़ी है सौगात ले के आ
जो कभी ना बोली गई वो बात ले के आ
जो खिल चुके हों फूल से हालात ले के आजिसमें बेकली भी हो, जिसमें शोखियाँ भी हों
जिसमें झिलमिलाती रात की बेहोशियाँ भी हों
जिसमें घोंसला भी हो, तिनकों से बुना अभी
जिसके तिनके हों कि ऐसे जैसे टूटें ना कभीहो जिसमें सरसराहटें, जिसमें खिलखिलाहटें
जिसमें सुगबुगाहटें, जिसमें कसमसाहटें
जिसमें ज़िन्दगी भी हो, जिसमें बन्दगी भी हो
जिसमें रूठना भी हो तो थोड़ी दिल्लगी भी होअनबुझी पहेली सी रात ले के आ
चाँद गोरी के घर बारात ले के आ…
11.इक बगल में चाँद होगा | पीयूष मिश्रा
इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ
इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ
हम चाँद पे, हम चाँद पे,
रोटी की चादर डाल कर सो जाएँगे
और नींद से, और नींद से कह देंगे
लोरी कल सुनाने आएँगेइक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ
इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ
हम चाँद पे, रोटी की चादर डाल के सो जाएँगे
और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आएँगेएक बगल में खनखनाती, सीपियाँ हो जाएँगी
एक बगल में कुछ रुलाती सिसकियाँ हो जाएँगी
हम सीपियो में, हम सीपियो में भर के सारे
तारे छू के आएँगे
और सिसकियो को, और सिसकियो को
गुदगुदी कर कर के यूँ बहलाएँगे
और सिसकियों को, गुदगुदी कर कर के यूँ बहलाएँगेअब न तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा
गम न कर जो आएगा वो फिर कभी ना जाएगा
याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी
लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी
याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी
लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगीहोनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जान
हद से ज़्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएँगे
हम मौत को, हम मौत को सपना बता कर
उठ खड़े होंगे यहीं
और होनी को, और होनी को ठेंगा दिखा कर
खिलखिलाते जाएँगे ,
और होनी को ठेंगा दिखा कर खिलखिलाते जाएँगे
और होनी को ठेंगा दिखा कर खिलखिलाते जाएँगे
- महादेवी वर्मा कविताएँ | Mahadevi Verma Poems in Hindi
- Sohanlal Dwivedi Poems | सोहनलाल द्विवेदी कविताएं
12.जावेद का ख़त…लखनऊ से | पीयूष मिश्रा
लाहौर के उस पहले ज़िले के, दो परगना में पहुँचे
रेशम गली के, दूजे कूचे के, चौथे मकाँ में पहुँचे
कहते हैं जिसको, दूजा मुलुक उस, पाकिस्ताँ में पहुँचे
लिखता हूँ ख़त मैं हिन्दोस्ताँ से, पहलू-ए-हुस्नाँ में पहुँचे
ओ हुस्नाँ…मैं तो हूँ बैठा, ओ हुस्नाँ मेरी, यादों पुरानी में खोया
पल पल को गिनता, पल पल को चुनता, बीती कहानी में खोया
पत्ते जब झड़ते, हिन्दोस्ताँ में, बातें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला, हिन्दोस्ताँ में यादें, तुम्हारी ये बोलेंओ हुस्नाँ मेरी, ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्ताँ में
रहती हो नन्हीं कबूतर-सी गुम तुम जहाँ
ओ हुस्नाँ…
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्ताँ में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुस्नाँ…
होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दुस्ताँ में हाँ
ओ हुस्नाँ…वो हीर के राँझों, के नगमे मुझको, हर पल आ आ के सताए
वो बुल्ले शाह की, तकरीरों के, झीने-झीने साए
वो ईद की ईदी, लम्बी नमाज़ें, सेवइयों की झालर
वो दीवाली के दीये संग में, बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिसमें, संग-संग आँच लगाई
लोहड़ी का वो धुआँ जिसमें, धड़कन है सुलगाईओ हुस्नाँ मेरी ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआँ क्या अब भी निकलता है
जैसा निकलता था उस दौर में हाँ वहाँ
ओ हुस्नाँ…
हीरों के राँझों के नगमें क्या अब भी सुने जाते हैं हाँ वहाँ
ओ हुस्नाँ…
रोता है रातों में पाकिस्ताँ क्या वैसे ही जैसे हिन्दोस्ताँ
ओ हुस्नाँ…
पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्ताँ में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुस्नाँ…
होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दुस्ताँ में हाँ
ओ हुस्नाँ…
13.आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तको के झुण्ड | पीयूष मिश्रा
आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!मन करे सो प्राण दे, जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्वशक्तिमान है,
विश्व की पुकार है ये भगवत का सार है की
युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है !!!
कौरवो की भीड़ हो या पाण्डवो का नीर हो
जो लड़ सका है वही तो महान है !!!
जीत की हवस नहीं किसी पे कोई बस नहीं क्या
ज़िन्दगी है ठोकरों पर मार दो,
मौत अन्त हैं नहीं तो मौत से भी क्यों डरे
ये जाके आसमान में दहाड़ दो !आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!वो दया का भाव या की शौर्य का चुनाव
या की हार को वो घाव तुम ये सोच लो,
या की पूरे भाल पर जला रहे वे जय का लाल,
लाल ये गुलाल तुम ये सोच लो,
रंग केसरी हो या मृदंग केसरी हो
या की केसरी हो लाल तुम ये सोच लो !!
जिस कवि की कल्पना में ज़िन्दगी हो
प्रेम गीत उस कवि को आज तुम नकार दो,
भीगती नसों में आज फूलती रगों में
आज आग की लपट तुम बखार दो !!!आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!
14.उजला ही उजला | पीयूष मिश्रा1
जला ही उजला शहर होगा जिसमें हम-तुम बनाएँगे घर
दोनों रहेंगे कबूतर से जिसमें होगा ना बाज़ों का डरमखमल की नाज़ुक दीवारें भी होंगी
कोनों में बैठी बहारें भी होंगी
खिड़की की चौखट भी रेशम की होगी
चन्दन से लिपटी हाँ सेहन भी होगी
सन्दल की ख़ुशबू भी टपकेगी छत से
फूलों का दरवाज़ा खोलेंगे झट से
डोलेंगे महकी हवा के हाँ झोंके
आँखों को छू लेंगे गर्दन भिगो के
आँगन में बिखरे पड़े होंगे पत्ते
सूखे से नाज़ुक से पीले छिटक के
पाँवों को नंगा जो करके चलेंगे
चर-पर की आवाज़ से वो बजेंंगे
कोयल कहेगी कि मैं हूँ सहेली
मैना कहेगी नहीं हूँ अकेली
बत्तख भी चोंचों में हँसती-सी होगी
बगुले कहेंगे सुनो अब उठो भी
हम फिर भी होंगे पड़े आँख मूँदे
कलियों की लड़ियाँ दिलों में हाँ गूँधे
भूलेंगे उस पार के उस जहाँ को
जाती है कोई डगर…चाँदी के तारों से रातें बुनेंगे तो चमकीली होगी सहर
उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनाएँगे घरआओगे थककर जो हाँ साथी मेरे
काँधे पे लूँगी टिका साथी मेरे
बोलोगे तुम जो भी हाँ साथी मेरे
मोती सा लूँगी उठा साथी मेरे
पलकों की कोरों पे आए जो आँसू
मैं क्यों डरूँगी बता साथी मेरे
उँगली तुम्हारी तो पहले से होगी
गालों पे मेरे तो हाँ साथी मेरे
तुम हँस पड़ोगे तो मैं हँस पड़ूँगी
तुम रो पड़ोगे तो मैं रो पड़ूँगी
लेकिन मेरी बात इक याद रखना
मुझको हमेशा ही हाँ साथ रखना
जुड़ती जहाँ ये ज़मीं आसमाँ से
हद हाँ हमारी शुरू हो वहाँ से
तारों को छू लें ज़रा सा सँभल के
उस चाँद पर झट से जाएँ फिसल के
बह जाएँ दोनों हवा से निकल के
सूरज भी देखे हमें और जल के
होगा नहीं हम पे मालूम साथी
तीनों जहाँ का असर…राहों को राहें भुलाएँगे साथी हम ऐसा हाँ होगा सफ़र
उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनाएँगे घर
15.रात के मुसाफिर | पीयूष मिश्रा
हो, रात के मुसाफिर तू भागना संभल के
पोटली में तेरी हो आग ना संभल के – (२)
रात के मुसाफिर….
चल तो तू पड़ा है, फासला बड़ा हैजान ले अँधेरे के सर पे ख़ून चढ़ा है – (२)
मुकाम खोज ले तू, मकान खोज ले तूइंसान के शहर में इंसान खोज ले तू
देख तेरी ठोकर से, राह का वो पत्थरमाथे पे तेरे कस के लग जाये ना उछल के
हो, रात के मुसाफिर….
माना की जो हुआ है, वो तूने भी किया हैइन्होंने भी किया है, उन्होंने भी किया है
माना की तूने… हाँ, हाँ, चाहा नहीं था लेकिनतू जानता नहीं कि ये कैसे हो गया है
लेकिन तू फिर भी सुनले, नहीं सुनेगा कोईतुझे ये सारी दुनिया खा जाएगी निगल के – (२)
हो, रात के मुसाफिर तू भागना संभल केपोटली में तेरी हो आग ना संभल के
हमें विश्वास है कि पीयूष मिश्रा की ये 15 कविताएँ आपके मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ गई होंगी। इन रचनाओं के माध्यम से हमने समाज के कटु सत्य, प्रेम की जटिलताओं और जीवन के यथार्थ को एक नए नजरिए से देखा है। पीयूष मिश्रा की लेखनी ने न केवल साहित्य को एक नया आयाम दिया है, बल्कि समाज को सोचने पर मजबूर भी किया है। यदि आपको यह काव्य शैली पसंद आई है और आप और अधिक समकालीन कविताएँ पढ़ना चाहते हैं, तो हमारी गोपालदास नीरज की कविताएँ या जावेद अख्तर की शायरी भी देख सकते हैं।
पीयूष मिश्रा की कविताओं ने यदि आपको विचलित किया है या नए विचारों से परिचित कराया है, तो हम आपसे अनुरोध करते हैं कि इन्हें अपने सोशल मीडिया पर शेयर करें। आप अगले पोस्ट में इन कविताओं को अपने दोस्तों और परिवार के साथ बाँट सकते हैं, ताकि इन विचारों और भावनाओं का प्रसार हो सके।
आशा करते हैं कि ये कविताएँ आपको समाज और जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण देंगी। पीयूष मिश्रा की काव्य यात्रा में शामिल होने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद! याद रखें, कभी-कभी कविता वह कह जाती है, जो हम कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते।